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बहुत दिन हो गए है कुछ लिखे इस ब्लॉग पर मुझे तो सोचा आज कुछ लिखता हूँ मै. अभी तक मैंने यहाँ पर अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बारें में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है इसलिए आज सोचरहा हूँ की किसी अपने के बारें में लिखूं. तो चलो आज आपको मै अपने स्वर्गीय बाबाजी के बारें में कुछ बताता हूँ .
२ नवम्बर 1931 को उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के टिकोला गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जितना मुझे ध्यान है उनके पिताजी का नाम तुंगल दत्त शर्मा था माताजी का मुझे ध्यान नहीं आरहा है , अरे मै अपने बाबाजी का नाम बताना तो भूल ही गया उनका नाम कैलाश चंद शर्मा था. उनका परिवार मुझे ज्ञात होता है की थोड़ी बहुत खेती बाड़ी करता था और थोडा पंडित गिरी का काम मतलब ज्यादा पैसे वाला परिवार नहीं था. वोह अपने माँ बांप की पहली संतान थे .
उनके दो भाई और शायद चार बहेने और हुई, छोटी उम्र में ही उनका विवाह मेरी अम्मा से हो गया था, मुझे ध्यान है उन्होंने मुझे बताया था की उनका विवाह उनकी दसवी की परीक्षा के दौरान हुआ था उसके बाद भी उन्होंने अपने पढाई जरी राखी और बी ऐ भी पढ़ी. उसके बाद उन्होंने बहुत सारे गाँव में स्कूल खोलें और वहा पढाया भी आज उनमे से बहुत इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज हो चुके है मगर मेरे बाबाजी कही रुके नहीं और आखिर में देवबंद कसबे में उन्होंने अपना डेरा डाला .
यहाँ शिशु मंदिर स्कूल में वोह मास्टरजी बने इसी नाम से वोह आगे चलकर जाने गए. इसी दौरान मेरे पिताजी का जन्म हुआ जो उनकी पहली संतान हुए. उनकी आदत लोगो की मदद करने वाली थी .कोई बुरी आदत उन्हें नहीं थी पर हाँ बीडी पीने की उन्हें लत थी, थे तो वे दुबले पतले पर पीतेथे पहलवान बीडी.
मेरे पिताजी के बाद उनकी चार संतान और हुई मेरे चाचा और मेरी तीन बुआए. उनका पूरा जीवन तंगी में ही कटा भला एक मामूली मास्टर 7 लोगो का पेट कैसे पालता ? साथ में वोह बस स्टैंड पर भी ड्यूटी करते थे बीच बीच में दुकाने भी खोली उन्होंने मगर वोह ज्यादा नहीं चली. मुझे याद है एक बार उन्होंने बताया की वो दिल्ली गए और वहा से बहुत सारी पीपनी [ एक प्रकार का खिलौना] लाए और मेरठ में आकर उन्होंने बेची वोह कुछ ही देर में सारी की सारी बिक गयी एसे काम करते थे मेरे बाबाजी मगर चहरे पर सदा उनके मुस्कान ही दिखती थी.
वोह और उनकी साइकिल हमेशा साथ रहती थी , जब हम देवबंद जाते थे तो उनकी साइकल की घंटी हमें बतादेती की बाबाजी काम से वापस आ गए है , आते ही वोह हमे बाज़ार ले चलते और कुछ खाने की चीज़ दिलाते , हमें अंडे भी उन्होंने ही खिलाने सिखाए खुद्तो खाते नहीं थे मगर हमें पहाड़ी आलू कहकर खिला देते , वैसे खुद भी खाने के शोकीन थे आखरी टाइम पर तो उन्होंने हमारे साथ मैग्गी भी खाई चटकारे लगाकर.
मेरी अम्मा को बहुत प्यार करते थे वोह, जो उन्होंने कह दिया वोही होगा, एक बार अम्मा के भांजे की शादी थी और उसी दिन उनकी देवरानी की तेहरवी मगर वोह तो अम्मा के भांजे की शादी में ही गए , मुझे ध्यान पड़ता है की वोह तो अम्मा के कपडे भी धोदेते थे.
कहानियाँ किसीसे सुनी तो मैंने अपने बाबाजी से , हर तरह की कहानी उन्हें ज्ञात थी , बचपन में रात होते ही उनके पास पहुच जाते बस उनकी एक शर्त रहती की हर लाइन के बाद हम्म हम्म करते रहो , शेखचिल्ली के किस्से तो उन्हें सारें याद थे. हर कहानी के आखिर में वोह बोलते की सुनने वाले की नाक में डाला और कहानी कहने वाले का भला.
रिटायर होने के बाद भी उन्होंने काम नहीं छोड़ा और कोई प्राइवेट स्कूल में वोह पढ़ते रहे , घर पर तो वोह बैठते ही नहीं थे, कभी हम देवबंद जाते तो हमें बस स्टैंड पर ही मिल जाते घूमते हुए, अबका तो पता नहीं पर जब वोह जीवित थे पूरा देवबंद क़स्बा उन्हें पहचान्ताथा.
मेरी अम्मा और बाबाजी अकेले ही देवबंद में रहते थे , तीनो बुआ की शादी तो बाहर हो गयी चाचा और पापा बैंक में थे तो वोह भी बाहर ही थे , मगर देवबंद के बिना उनका कही मन नहीं लगता था. 4-5 साल पहले भैय्यादूज के दिन अम्मा बीमार पड़ी तो मै और चाचा उन्हें मेरठ अपने घर पर लेआए इलाज कराने को तो उन्हें देवबंद छोड़ना पड़ा , मगर तब भी वोह हफ्ते में तीन चार दिन तो देवबंद हो ही आते थे[ देवबंद मेरठ से 100 कीमी दुरी के करीब है ]
एक दिन चाची घर पर आई और बताया की बाबाजी ने देवबंद का घर बेच दिया है और हमसे सलाह भी नहीं ली , जिसे बेचा उसने उन्हें पचास हज़ार रुपे दिए, उन्होंने अपने घर का बिजली का बकाया बिल था जो हजारो का वोह चुकता करा , उन्हें क्या पता था जिसे घर में घुसाया है वोह पाखंडी निकलेगा और इन्हें ठेंगा दिखा देगा, लाखो का घर हजारो में कब्ज़ा लिया.
एक दिन वे मेरठ में पोस्ट ऑफिस से घर आ रहे थे , रोड के किनारे चलरहे थे कोई गाड़ी और मोटर साइकिल में टक्कर हो गयी, मोटर साइकिल उनके पैर के ऊपर आ गिरी ज़ख़्म देखा तो सीधे पैर की हड्डी तक दिखने लगी . अब उनका देवबंद भी आना जाना बंद हो गया था. पैर कमज़ोर थे घाव भरना मुश्किल हो गया उनका. चलना फिरना बंद हो गया तो और बीमारिया भी उन्हें मुह चिढाने लगी.
खैर थोडा चलना फिरना शुरू करा उन्होंने , एक दिन जब वोह चाचा के यहाँ रह रहे थे अम्मा को साथ लेकर शुक्रताल चले गए , हमने भी सोचा पिताजी के यहाँ दिल्ली हो आए तय्यार होकर घर से निकले ही थे की पिताजी की मुज़फ्फरनगर वाली बुआ का फ़ोन आ गया की बाबाजी उनके यहाँ है और आप इन्हें ले जाओ . जाना था दिल्ली पहुच गए हम मुज़फ्फरनगर , बाबाजी तो आने को तय्यार नहीं पर किसी तरह मेरठ हम उन्हें और अम्मा को ले आए. अब तो और भी कमज़ोर हो गए थे वोह.
एक रात उन्हें देखा तो वोह सर नीचे करके बैठे थे उनसे पूछा तो कुछ बोले नहीं धीरे धीरे काँप रहे थे मै चला गया , अगले दिन माताजी ने उन्हें रोटी और सब्जी दी पर उन्होंने खाई नहीं माताजी ने अम्मा से खिलवाने को कहा तो उन्होंने आधी रोटी खाली, थोड़ी देर बाद देखा तो फिर कल की तरह सर नीचे करके बैठे थे पर इस बार हालत ख़राब लगी. चाची को बुलाया और छोटे भाई को भी मैंने, माताजी और चाची के साथ गाड़ी में उन्हें डॉक्टर के यहाँ ले गए, डॉक्टर ने आक्सीजन चढ़ाया थोड़ी तबियत को संभालता देख माताजी और चाची घर को निकली मुझे छोड़कर उनके पास.
मै उनका हाथ थामे उनके पास बैठा रहा , थोड़ी देर बाद वोह जोर जोर से सांस लेने लगे और मुझे देखने लगे मेरा हाथ कास के पकड़ लिया उन्होंने फिर उनकी पकड़ ढीले हो गए मै समझ गया अब वोह नहीं रहे आखों से अश्रु निकल पड़े मेरे डॉक्टर साहब आए उन्होंने उनकी खुली आखें बंद कर दी. मुझे नहीं पता था एसा कुछ होगा मैंने कभी मृत्यु नहीं देखि थी आज देखली.
दो साल होने को आए है इस बात को अब तो अम्मा भी नहीं रही , मुझे लगता है वोह एक महान आत्मा थे पता नहीं हमने उनकी जितनी सेवा करनी चाहीए उतनी करी के नहीं की.
दो साल होने को आए है इस बात को अब तो अम्मा भी नहीं रही , मुझे लगता है वोह एक महान आत्मा थे पता नहीं हमने उनकी जितनी सेवा करनी चाहीए उतनी करी के नहीं की.